अनुरोध बस इतना है कि इसे सुकून से महसूस कर पढ़ना।
कहानी
#आधी #परी।
(सच्ची घटना पर आधारित)
वो पचास वर्ष की हो गयी होगी लगभग।इतना प्यार और देखभाल उसे पहले कभी नहीं मिली थी।
आज उसे अच्छी सी टेबल पर भरपूर थाली ,फल ,सलाद और मिठाई के साथ दी गयी थी।
ललित पहली बार उसके लिए नया सलवार सूट लाया था, और एक गाउन भी।वर्ना कबसे तो वो बस उतरन ही पहनती आयी थी।बस पिता ही थे जो उसे गोदी उठाते,नई फ़्रॉक लाते और मिठाई खिलाते थे।
बड़ा अज़ीब था सबकुछ।वो आदी नहीं थी अच्छे व्यव्हार की।पिछले तीन दिनों से किसी ने भी उसे झिड़का और दुत्कारा नहीं था।
हाँ वो थोड़ी मंद बुद्धि थी।चीज़ों का बहुत विश्लेषण नहीं कर सकती थी।नयी चीज़ें याद करना भी मुश्किल था,बोलने में भी तुतलाती और अटकती थी।लेकिन बीते अच्छे और बुरे पल उसे याद होते थे हमेशा।शायद इन पलों को दिल सहेजता है दिमाग नहीं इसलिए।
और मस्तिष्क कमज़ोर था उसका दिल,भावनाएं,हंसी,खुशी,सम्मान,अपमान,प्यार,दुत्कार इन सबकी अनुभूति तो थी ही उसे।
उसे वैसे परिष्कृत हाव भाव नहीं आते थे जैसे सबके थे लेकिन वो समझ सकती थी औरों के हाव भाव और बातों के पीछे छिपे प्रेम ,घृणा और दया को भी।
वो भरी थाली को देखती रही ,हर रोज़ की तरह ही उसे माँ की बातें अब भी याद आतीं।
सम्मान,प्यार,देखरेख की अब उसे ज़रुरत नहीं थी।जब बरसों तक कोई चीज़ जिसके हम हक़दार हों न मिले तो प्रकृति उससे विरक्ति पैदा कर देती है।
उसे अब वही विरक्ति थी।
इन्हीं विरक्त,शून्य को तलाशती आँखों में उसके बीते हुए पल घूम रहे थे।
पिता उसके लिए वही फ़्रॉक और मिठाई लाए थे।सब कहते थे वो छह वर्ष की ढोर है।
वो रंग पहचानना तो उस वक़्त तक भी नहीं सीखी थी लेकिन पिता का प्यार वो पहचानती थी।ये फ़्रॉक उसी प्यार से रंगी थी।
उसके कदम लड़खड़ाते थे,कुछ ही वाक्य लड़खाते बोलती थी।मुँह खुला और लार बहाते रखती थी।
वो अपनी सर्वश्रेष्ठ सामर्थ्य से दौड़ते लड़खड़ाते फ़्रॉक तक आयी थी।
ताली बजाई थी,खिलखिलाई थी।
तभी माँ ने फ़्रॉक को उठा कर दूर फेंक दिया था।
"कुलक्षिणी,बोदा, बड़ी फ़्रॉक पहनेगी।
लार बहाना तो बंद कर ले।
गधी से न तो बोलना आता न तमीज़।"
वो सहम गयी थी।
पापा ने उसके लिए लड़ाई भी की थी माँ से,और उसे गले से चिपका कर आंसू भी बहाये थे।माफ़ कर दो मुझे जैसा भी कुछ कहा था।
बड़े होते होते उसे अपनी कहानी पता चल ही गई थी कि आखिर वो ऐसी क्यों है।छोटे भाई ललित जैसी सुन्दर,दौड़ सकने,साइकिल चला सकने,अच्छे से बोल सकने और पढ़ाई कर सकने लायक क्यों नहीं।
उसकी कहानी उसे इसलिए पता चली थी क्योंकि जो भी घर में आता उसे देखते ही पहला प्रश्न ये पूछता, "क्या हुआ था इसे?'
"क्या ये मंदबुद्धि है?"
"एक तो लड़की जात ऊपर से ऐसी।क्या होगा च् च् च्......."
उनकी सहानुभूति अवचेतन में छुपी खुशी सी होती, मानो दिल कहना चाह रहा हो चलो हम और हमारे बच्चे बच गए प्रकृति के इस प्रकोप से।
पिछले जन्म के पाप के विषय में भी चर्चाएं शुरू हो जातीं।
और जवाब में माँ विस्तार से हर बार बताती।
"इसकी महतारी तो मर गई जनम के समय लेकिन हमारे सर पर इसे पटक गयी।
बोलते हैं देर से रोई थी तो दिमाग को ऑक्सीजन कम
हो गया।उससे ऐसी पगला गयी।"
उसके देर से रोने की सज़ा जीवनभर के आंसू होने वाले थे।
कितनी ही बार माँ कहती "काहे जनम लिया तूने।अपनी माँ के साथ तब ही नहीं मर सकती थी।
आखिर ऐसी ज़िंदगी का मतलब ही क्या।क्यों लेते है जन्म ऐसे बच्चे।"
हाँ उसकी माँ की मृत्यु के एक वर्ष बाद ही पापा ,माँ को ले आये थे।
आखिर लाये वो उन्हें उसके लिए ही थे।आखिर कैसे पालते।
अकेली माएं तो बच्चे पाल लेती हैं लेकिन अकेले पिता नहीं।प्रकृति ने बड़ा कमज़ोर बनाया है इस मामले में पुरुष को।
माँ एक साल तक तो ठीक रही ,लेकिन उसके तीन बर्ष के होते होते ललित आ गया था उनकी गोद में।
अब दो बच्चों को पालना उसपर भी एक बच्ची ऐसी।
मंदबुद्धि।अब भी बिस्तर पर सबकुछ करने वाली।
कटोरी में खाना दो तो पूरे फर्श में फैला देने वाली।
और माँ बदलने लगी।
वो जितना ललित को प्यार करती उतना ही उसे दुत्कारती।
माँ को लगता वो अड़ंगा है ललित की परवरिश में।
लेकिन उसे तो ललित बड़ा प्यारा लगता।
उसका पहला खिलौना। मोटा सा ,गोरा गोरा।
जब वो लड़खड़ा कर चलती तब ललित घुटने के बल चलता।
वो उसकी तरफ बॉल लुढ़काता तो वो खिलखिलाती।
धीरे धीरे दोनों बड़े होने लगे। ललित धीमे और वो बहुत धीमे...।
ललित प्यार से पल रहा था और वो दुत्कार से।
ललित हालाँकि उसे दीदी ही बोलता। प्यार करता, रक्षा करता।उसका खिलौना बड़ा हो गया था और वो छोटी ही रह गयी थी।ललित अब स्कूल और बाहर दोस्तों के साथ ज़्यादा खेलता। वो पुराने हो चुके खिलौने सी बैठी रहती घर में।
पापा ने उसका दिमाग बढ़ाने एक पज़ल सा खिलौना ला कर दिया था। आधा टुकड़ा ललित को और आधा उसे दिया था।दोनों को मिलाने पर एक परी बन जाती थी।
वो उसे शुरू में बहुत मुश्किल से जोड़ पाती थी,ललित तुरंत।लेकिन धीरे धीरे वो भी सीख गयी थी आसानी से जोड़ना।उस पज़ल से दिमाग बढ़ा था कि नहीं ये तो नहीं पता लेकिन उसे खुद वो ललित के बिना अधूरी लगने लगी थी।ललित का आधा टुकड़ा ही उसे सम्पूर्ण करता।
लेकिन एक दिन ललित ने आधी पज़ल गुमा दी थी।
वो गुमसुम हो गयी थी।जैसे टूट गयी हो खुद।आधी परी।
स्कूल भेजने की कोशिश की गयी थी उसे भी।लेकिन वो एक अलग दुनिया थी उसके लिए।दो दिन भी नहीं रह पाई थी वहां।
हाँ ललित ने ही नाम लिखना सिखा दिया था।वो दिन भर अपना नाम लिखती रहती।
ललित से उसने एक बार पूछा था लडख़ड़ाती ज़बान से
"भाई मंदबुद्धि कैसे लिखते हैं।"
ललित का जन्मदिन मनाया जाता,उसे संगीत पसंद था,अपने कमरे में थिरकती ताली बजा बजा कर,लेकिन जन्मदिन में शामिल होने की अनुमति नहीं थी उसे।माँ को उसे चिढ़ाये जाने और शर्म का अहसास होता।
उसके सुकून के पल पापा के आने पर होते।जब पापा दोनों को गोदी उठाते।
ललित उसे कितना प्यार करता है उसने तब जाना था जब वो एकबार बाहर आ गई थी , वो क्रिकेट खेल रहा था।
और एक बच्चे ने कह दिया था "तेरी बहन पागल है।"
और ललित भिड़ गया था उससे।
अपने से बड़े लड़के से।
उसे खरोंचें आयी थीं और माँ से दोनों को बहुत डांट पड़ी थी।
मुझे कहीं ज़्यादा।
माँ ने कहा था "पगलिया को पागल नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे लोग।बुचड़ी क्यों गयी थी बाहर नाक कटाने।
और मेरा बाहर निकलना बिलकुल बंद करवा दिया था।"
और ऐसे ही उसका बचपन बीता था।
उसकी जवानी न तो आईनों, कपड़ों मेकअप के साथ थी न कॉलेज, कैंटीन ,फिल्मों में।
क्या पता उसे लड़के पसंद आते थे भी या नहीं।क्या प्रेम की आकांक्षा इन्हें भी होती होगी?होती भी हो तो क्या,प्यार पाने के अधिकार तो ये बच्चे तब ही खो चुके होते हैं जब ये जी जाते हैं, मरते मरते।
जवानी में उसपर सबके सामने आने पर पूरे पहरे लगा दिए गए थे।
ललित की शादी के समय उसने सजी ,धजी खूबसूरत दुल्हन देखी थी,सब कित्ती सुन्दर है,कित्ती प्यारी है बोल रहे थे।
और तब ही वो खुद भी गाढ़ी फ़ैली हुई लिपस्टिक पोत आई थी सबके सामने।
सब उसे देख कर खूब हंसे थे।
वो रुक कर पहले उन्हें हँसते देख रही थी।उसका छोटा सा दिमाग इस हंसी के पीछे के मतलब को प्रोसेस कर रहा था।उसे लगा था लिपस्टिक के बाद उसे भी कहा जायेगा कित्ती सुन्दर लग रही है,लेकिन सब हंसे थे।
जब छोटे दिमाग ने प्रोसेस कर लिया तो वो भी हंसी थी थोड़ा शर्माकर।
ललित की दुल्हन अच्छी थी ।कहीं जॉब करती थी।
अच्छी लेकिन बहुत व्यस्त।उससे वो घृणा वाले शब्द उसने कभी नहीं कहे थे।लेकिन सच तो ये है कि उसने कभी कुछ कहा ही नहीं था।वो कौने में रखा स्टूल थी उसके लिए।धुल लगा स्टूल जिसे छूने से हाथ गंदे हो जाते।
ललित भी व्यस्त होते चला गया।
अब उससे दुर्व्यवहार तो कोई नहीं करता था।माँ भी नहीं लेकिन उपेक्षा खुद भी तो सजा ही होती है।
अकेली कौने में बैठी, खिड़की से देखती रहती बाहर बच्चों को खेलते हुए।।
बचपन में सहानुभूति दिखाने वाली आवाज़ें भी धीरे धीरे ख़त्म हो गयी थीं।
और यूँ ही जवानी भी कट गयी थी।
सच तो पूछती थी माँ आखिर तू क्यों बच गयी।तू क्यों न मर गयी।
उद्देश्यहीन ,अनुपयोगी जीवन।बस खाना, जागना और सोना यह चक्र चलते पचास वर्ष हो गए थे और आज अचानक उसे सम्मान और अच्छा खाना मिला था।
माँ ने अब कोसना न के बराबर कर दिया था,काफी बूढ़ी और कमज़ोर जो हो गयी थीं।
पिता जब नहीं रहे ,वो रोई नहीं थी।क्योंकि उसका वही छोटा सा दिमाग, प्रोसेस नहीं कर पाया था मौत और उसके मतलब को।
बहुत दिनों तक अब भी वो पहले की ही तरह उनकी आवाज़ की प्रतीक्षा करती रोज़ शाम।
थोड़ा सा खाना ख़त्म कर वो बैठी ही थी कि माँ पास आयी।बूढ़ी ,लेकिन अब भी दिमाग वैसा ही तेज़।
पहली बार शायद नाम लिया था माँ ने ,वरना उसका तो नाम ही मंदबुद्धि रख दिया था माँ ने।
पिछले एक हफ्ते से फ़ैली अज़ीब मनहूसियत और उस पर उसकी ये देखभाल।पुराने खिलौने को जैसे किसी ने झाड़ पोंछ कर फिर से सजा दिया था उजड़े मकान में।
उसकी इस देख रेख के पीछे कहीं, कुछ छुपा था।वो अहसास कर सकती थी। बेचैनी,असमंजस कशमकश जैसे शब्द उसे कहाँ पता थे ,लेकिन ये थे तो उसी की भीतर।और इस घर की दीवारों के भीतर।
सबके बुझे चेहरे, ऊपरी मुस्कराहट तले ढंके थे।
आखिर अब उसे समझ आने ही वाला था।
माँ सर पर हाथ रख बोली थी "बेटा मैं जीवन भर तुझे कहती रही तू क्यों जी गयी।क्यों मर न गयी।"
आज समझ आया मुझसे कितना बड़ा पाप हुआ है।
चल डॉक्टर के पास।
ललित ,बहू और माँ तीनों उसे लेकर डॉक्टर के पास गए थे।
डॉक्टर कौशल एक जाने माने कैंसर रोग विशेषज्ञ थे।
उन्होंने मुस्कुरा कर कहा "अच्छा! ले आये आप इन्हें।
ये बहन हैं आपकी?"
"ठीक है फिर हम कोशिश कर सकते हैं।"
माँ ने पुछा था "डॉक्टर ललित ठीक तो हो जायेगा न।
और हमें भी थोडा सा समझा दें ये क्या बीमारी है।"
डॉक्टर ने कहा था
"माँ जी क्रोनिक माइलॉयड ल्युकेमिया नाम का ब्लड कैंसर है ललित को।
ये धीमे धीमे आगे बढ़ने वाला कैंसर है।
बोन मेरो ट्रांसप्लांटेशन ही एक मात्र परमानेंट उपचार है।
हालाँकि बोन मेरो ट्रांसप्लांट में दिक्कत ये है कि ये मैच होना चाहिए साथ ही कुछ खतरा भी होता है।
बोन मेरो मैच होने की सम्भावना भाई बहन में ज़्यादा होती है।और ललित के केस में तो और किसी से लिया ही नहीं जा सकता क्योंकि आप की उम्र ज़्यादा है और आनुवंशिक रूप से कोई और करीबी संबंधी नहीं है।
ललित ने बताया था एक ही बहन है,तो मैंने कहा कोशिश कर लेते हैं।"
"लेकिन हाँ डोनर की सहमति आवश्यक है मिलान के पहले।"
और उससे डॉक्टर ने कहा था "बोनमेरो की जांच में थोड़ा दर्द होगा आपको ,क्या आप करवाओगी?"
उसके उसी छोटे से दिमाग ने बस इतना प्रोसेस किया था इस बार कि इन्हें ललित के लिए मुझसे कुछ चाहिए ,कुछ ऐसा कि मुझे दर्द होगा।
वो उत्तर में बस हंसी थी।
दो दिन बाद बोनमेरो मैच हो गया था
अस्पताल के सहमति पत्र में उसने वही उबड़ खाबड़ हस्ताक्षर कर दिए थे जो ललित ने सिखाये थे।उसे ललित से तब ही बहुत प्यार हो गया था जब उसे खरोंचें लगीं थी लड़ाई में।वो आधी परी को छुपाये हुए थी बायीं मुट्ठी में।आधी परी का बोनमैरो ललित में मिलकर उसे पूरा बना रहा था।
वो क्यों मर न गयी तब ही ये उसको और माँ को समझ आ गया था।
।।अव्यक्त।।
कहानी
#आधी #परी।
(सच्ची घटना पर आधारित)
वो पचास वर्ष की हो गयी होगी लगभग।इतना प्यार और देखभाल उसे पहले कभी नहीं मिली थी।
आज उसे अच्छी सी टेबल पर भरपूर थाली ,फल ,सलाद और मिठाई के साथ दी गयी थी।
ललित पहली बार उसके लिए नया सलवार सूट लाया था, और एक गाउन भी।वर्ना कबसे तो वो बस उतरन ही पहनती आयी थी।बस पिता ही थे जो उसे गोदी उठाते,नई फ़्रॉक लाते और मिठाई खिलाते थे।
बड़ा अज़ीब था सबकुछ।वो आदी नहीं थी अच्छे व्यव्हार की।पिछले तीन दिनों से किसी ने भी उसे झिड़का और दुत्कारा नहीं था।
हाँ वो थोड़ी मंद बुद्धि थी।चीज़ों का बहुत विश्लेषण नहीं कर सकती थी।नयी चीज़ें याद करना भी मुश्किल था,बोलने में भी तुतलाती और अटकती थी।लेकिन बीते अच्छे और बुरे पल उसे याद होते थे हमेशा।शायद इन पलों को दिल सहेजता है दिमाग नहीं इसलिए।
और मस्तिष्क कमज़ोर था उसका दिल,भावनाएं,हंसी,खुशी,सम्मान,अपमान,प्यार,दुत्कार इन सबकी अनुभूति तो थी ही उसे।
उसे वैसे परिष्कृत हाव भाव नहीं आते थे जैसे सबके थे लेकिन वो समझ सकती थी औरों के हाव भाव और बातों के पीछे छिपे प्रेम ,घृणा और दया को भी।
वो भरी थाली को देखती रही ,हर रोज़ की तरह ही उसे माँ की बातें अब भी याद आतीं।
सम्मान,प्यार,देखरेख की अब उसे ज़रुरत नहीं थी।जब बरसों तक कोई चीज़ जिसके हम हक़दार हों न मिले तो प्रकृति उससे विरक्ति पैदा कर देती है।
उसे अब वही विरक्ति थी।
इन्हीं विरक्त,शून्य को तलाशती आँखों में उसके बीते हुए पल घूम रहे थे।
पिता उसके लिए वही फ़्रॉक और मिठाई लाए थे।सब कहते थे वो छह वर्ष की ढोर है।
वो रंग पहचानना तो उस वक़्त तक भी नहीं सीखी थी लेकिन पिता का प्यार वो पहचानती थी।ये फ़्रॉक उसी प्यार से रंगी थी।
उसके कदम लड़खड़ाते थे,कुछ ही वाक्य लड़खाते बोलती थी।मुँह खुला और लार बहाते रखती थी।
वो अपनी सर्वश्रेष्ठ सामर्थ्य से दौड़ते लड़खड़ाते फ़्रॉक तक आयी थी।
ताली बजाई थी,खिलखिलाई थी।
तभी माँ ने फ़्रॉक को उठा कर दूर फेंक दिया था।
"कुलक्षिणी,बोदा, बड़ी फ़्रॉक पहनेगी।
लार बहाना तो बंद कर ले।
गधी से न तो बोलना आता न तमीज़।"
वो सहम गयी थी।
पापा ने उसके लिए लड़ाई भी की थी माँ से,और उसे गले से चिपका कर आंसू भी बहाये थे।माफ़ कर दो मुझे जैसा भी कुछ कहा था।
बड़े होते होते उसे अपनी कहानी पता चल ही गई थी कि आखिर वो ऐसी क्यों है।छोटे भाई ललित जैसी सुन्दर,दौड़ सकने,साइकिल चला सकने,अच्छे से बोल सकने और पढ़ाई कर सकने लायक क्यों नहीं।
उसकी कहानी उसे इसलिए पता चली थी क्योंकि जो भी घर में आता उसे देखते ही पहला प्रश्न ये पूछता, "क्या हुआ था इसे?'
"क्या ये मंदबुद्धि है?"
"एक तो लड़की जात ऊपर से ऐसी।क्या होगा च् च् च्......."
उनकी सहानुभूति अवचेतन में छुपी खुशी सी होती, मानो दिल कहना चाह रहा हो चलो हम और हमारे बच्चे बच गए प्रकृति के इस प्रकोप से।
पिछले जन्म के पाप के विषय में भी चर्चाएं शुरू हो जातीं।
और जवाब में माँ विस्तार से हर बार बताती।
"इसकी महतारी तो मर गई जनम के समय लेकिन हमारे सर पर इसे पटक गयी।
बोलते हैं देर से रोई थी तो दिमाग को ऑक्सीजन कम
हो गया।उससे ऐसी पगला गयी।"
उसके देर से रोने की सज़ा जीवनभर के आंसू होने वाले थे।
कितनी ही बार माँ कहती "काहे जनम लिया तूने।अपनी माँ के साथ तब ही नहीं मर सकती थी।
आखिर ऐसी ज़िंदगी का मतलब ही क्या।क्यों लेते है जन्म ऐसे बच्चे।"
हाँ उसकी माँ की मृत्यु के एक वर्ष बाद ही पापा ,माँ को ले आये थे।
आखिर लाये वो उन्हें उसके लिए ही थे।आखिर कैसे पालते।
अकेली माएं तो बच्चे पाल लेती हैं लेकिन अकेले पिता नहीं।प्रकृति ने बड़ा कमज़ोर बनाया है इस मामले में पुरुष को।
माँ एक साल तक तो ठीक रही ,लेकिन उसके तीन बर्ष के होते होते ललित आ गया था उनकी गोद में।
अब दो बच्चों को पालना उसपर भी एक बच्ची ऐसी।
मंदबुद्धि।अब भी बिस्तर पर सबकुछ करने वाली।
कटोरी में खाना दो तो पूरे फर्श में फैला देने वाली।
और माँ बदलने लगी।
वो जितना ललित को प्यार करती उतना ही उसे दुत्कारती।
माँ को लगता वो अड़ंगा है ललित की परवरिश में।
लेकिन उसे तो ललित बड़ा प्यारा लगता।
उसका पहला खिलौना। मोटा सा ,गोरा गोरा।
जब वो लड़खड़ा कर चलती तब ललित घुटने के बल चलता।
वो उसकी तरफ बॉल लुढ़काता तो वो खिलखिलाती।
धीरे धीरे दोनों बड़े होने लगे। ललित धीमे और वो बहुत धीमे...।
ललित प्यार से पल रहा था और वो दुत्कार से।
ललित हालाँकि उसे दीदी ही बोलता। प्यार करता, रक्षा करता।उसका खिलौना बड़ा हो गया था और वो छोटी ही रह गयी थी।ललित अब स्कूल और बाहर दोस्तों के साथ ज़्यादा खेलता। वो पुराने हो चुके खिलौने सी बैठी रहती घर में।
पापा ने उसका दिमाग बढ़ाने एक पज़ल सा खिलौना ला कर दिया था। आधा टुकड़ा ललित को और आधा उसे दिया था।दोनों को मिलाने पर एक परी बन जाती थी।
वो उसे शुरू में बहुत मुश्किल से जोड़ पाती थी,ललित तुरंत।लेकिन धीरे धीरे वो भी सीख गयी थी आसानी से जोड़ना।उस पज़ल से दिमाग बढ़ा था कि नहीं ये तो नहीं पता लेकिन उसे खुद वो ललित के बिना अधूरी लगने लगी थी।ललित का आधा टुकड़ा ही उसे सम्पूर्ण करता।
लेकिन एक दिन ललित ने आधी पज़ल गुमा दी थी।
वो गुमसुम हो गयी थी।जैसे टूट गयी हो खुद।आधी परी।
स्कूल भेजने की कोशिश की गयी थी उसे भी।लेकिन वो एक अलग दुनिया थी उसके लिए।दो दिन भी नहीं रह पाई थी वहां।
हाँ ललित ने ही नाम लिखना सिखा दिया था।वो दिन भर अपना नाम लिखती रहती।
ललित से उसने एक बार पूछा था लडख़ड़ाती ज़बान से
"भाई मंदबुद्धि कैसे लिखते हैं।"
ललित का जन्मदिन मनाया जाता,उसे संगीत पसंद था,अपने कमरे में थिरकती ताली बजा बजा कर,लेकिन जन्मदिन में शामिल होने की अनुमति नहीं थी उसे।माँ को उसे चिढ़ाये जाने और शर्म का अहसास होता।
उसके सुकून के पल पापा के आने पर होते।जब पापा दोनों को गोदी उठाते।
ललित उसे कितना प्यार करता है उसने तब जाना था जब वो एकबार बाहर आ गई थी , वो क्रिकेट खेल रहा था।
और एक बच्चे ने कह दिया था "तेरी बहन पागल है।"
और ललित भिड़ गया था उससे।
अपने से बड़े लड़के से।
उसे खरोंचें आयी थीं और माँ से दोनों को बहुत डांट पड़ी थी।
मुझे कहीं ज़्यादा।
माँ ने कहा था "पगलिया को पागल नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे लोग।बुचड़ी क्यों गयी थी बाहर नाक कटाने।
और मेरा बाहर निकलना बिलकुल बंद करवा दिया था।"
और ऐसे ही उसका बचपन बीता था।
उसकी जवानी न तो आईनों, कपड़ों मेकअप के साथ थी न कॉलेज, कैंटीन ,फिल्मों में।
क्या पता उसे लड़के पसंद आते थे भी या नहीं।क्या प्रेम की आकांक्षा इन्हें भी होती होगी?होती भी हो तो क्या,प्यार पाने के अधिकार तो ये बच्चे तब ही खो चुके होते हैं जब ये जी जाते हैं, मरते मरते।
जवानी में उसपर सबके सामने आने पर पूरे पहरे लगा दिए गए थे।
ललित की शादी के समय उसने सजी ,धजी खूबसूरत दुल्हन देखी थी,सब कित्ती सुन्दर है,कित्ती प्यारी है बोल रहे थे।
और तब ही वो खुद भी गाढ़ी फ़ैली हुई लिपस्टिक पोत आई थी सबके सामने।
सब उसे देख कर खूब हंसे थे।
वो रुक कर पहले उन्हें हँसते देख रही थी।उसका छोटा सा दिमाग इस हंसी के पीछे के मतलब को प्रोसेस कर रहा था।उसे लगा था लिपस्टिक के बाद उसे भी कहा जायेगा कित्ती सुन्दर लग रही है,लेकिन सब हंसे थे।
जब छोटे दिमाग ने प्रोसेस कर लिया तो वो भी हंसी थी थोड़ा शर्माकर।
ललित की दुल्हन अच्छी थी ।कहीं जॉब करती थी।
अच्छी लेकिन बहुत व्यस्त।उससे वो घृणा वाले शब्द उसने कभी नहीं कहे थे।लेकिन सच तो ये है कि उसने कभी कुछ कहा ही नहीं था।वो कौने में रखा स्टूल थी उसके लिए।धुल लगा स्टूल जिसे छूने से हाथ गंदे हो जाते।
ललित भी व्यस्त होते चला गया।
अब उससे दुर्व्यवहार तो कोई नहीं करता था।माँ भी नहीं लेकिन उपेक्षा खुद भी तो सजा ही होती है।
अकेली कौने में बैठी, खिड़की से देखती रहती बाहर बच्चों को खेलते हुए।।
बचपन में सहानुभूति दिखाने वाली आवाज़ें भी धीरे धीरे ख़त्म हो गयी थीं।
और यूँ ही जवानी भी कट गयी थी।
सच तो पूछती थी माँ आखिर तू क्यों बच गयी।तू क्यों न मर गयी।
उद्देश्यहीन ,अनुपयोगी जीवन।बस खाना, जागना और सोना यह चक्र चलते पचास वर्ष हो गए थे और आज अचानक उसे सम्मान और अच्छा खाना मिला था।
माँ ने अब कोसना न के बराबर कर दिया था,काफी बूढ़ी और कमज़ोर जो हो गयी थीं।
पिता जब नहीं रहे ,वो रोई नहीं थी।क्योंकि उसका वही छोटा सा दिमाग, प्रोसेस नहीं कर पाया था मौत और उसके मतलब को।
बहुत दिनों तक अब भी वो पहले की ही तरह उनकी आवाज़ की प्रतीक्षा करती रोज़ शाम।
थोड़ा सा खाना ख़त्म कर वो बैठी ही थी कि माँ पास आयी।बूढ़ी ,लेकिन अब भी दिमाग वैसा ही तेज़।
पहली बार शायद नाम लिया था माँ ने ,वरना उसका तो नाम ही मंदबुद्धि रख दिया था माँ ने।
पिछले एक हफ्ते से फ़ैली अज़ीब मनहूसियत और उस पर उसकी ये देखभाल।पुराने खिलौने को जैसे किसी ने झाड़ पोंछ कर फिर से सजा दिया था उजड़े मकान में।
उसकी इस देख रेख के पीछे कहीं, कुछ छुपा था।वो अहसास कर सकती थी। बेचैनी,असमंजस कशमकश जैसे शब्द उसे कहाँ पता थे ,लेकिन ये थे तो उसी की भीतर।और इस घर की दीवारों के भीतर।
सबके बुझे चेहरे, ऊपरी मुस्कराहट तले ढंके थे।
आखिर अब उसे समझ आने ही वाला था।
माँ सर पर हाथ रख बोली थी "बेटा मैं जीवन भर तुझे कहती रही तू क्यों जी गयी।क्यों मर न गयी।"
आज समझ आया मुझसे कितना बड़ा पाप हुआ है।
चल डॉक्टर के पास।
ललित ,बहू और माँ तीनों उसे लेकर डॉक्टर के पास गए थे।
डॉक्टर कौशल एक जाने माने कैंसर रोग विशेषज्ञ थे।
उन्होंने मुस्कुरा कर कहा "अच्छा! ले आये आप इन्हें।
ये बहन हैं आपकी?"
"ठीक है फिर हम कोशिश कर सकते हैं।"
माँ ने पुछा था "डॉक्टर ललित ठीक तो हो जायेगा न।
और हमें भी थोडा सा समझा दें ये क्या बीमारी है।"
डॉक्टर ने कहा था
"माँ जी क्रोनिक माइलॉयड ल्युकेमिया नाम का ब्लड कैंसर है ललित को।
ये धीमे धीमे आगे बढ़ने वाला कैंसर है।
बोन मेरो ट्रांसप्लांटेशन ही एक मात्र परमानेंट उपचार है।
हालाँकि बोन मेरो ट्रांसप्लांट में दिक्कत ये है कि ये मैच होना चाहिए साथ ही कुछ खतरा भी होता है।
बोन मेरो मैच होने की सम्भावना भाई बहन में ज़्यादा होती है।और ललित के केस में तो और किसी से लिया ही नहीं जा सकता क्योंकि आप की उम्र ज़्यादा है और आनुवंशिक रूप से कोई और करीबी संबंधी नहीं है।
ललित ने बताया था एक ही बहन है,तो मैंने कहा कोशिश कर लेते हैं।"
"लेकिन हाँ डोनर की सहमति आवश्यक है मिलान के पहले।"
और उससे डॉक्टर ने कहा था "बोनमेरो की जांच में थोड़ा दर्द होगा आपको ,क्या आप करवाओगी?"
उसके उसी छोटे से दिमाग ने बस इतना प्रोसेस किया था इस बार कि इन्हें ललित के लिए मुझसे कुछ चाहिए ,कुछ ऐसा कि मुझे दर्द होगा।
वो उत्तर में बस हंसी थी।
दो दिन बाद बोनमेरो मैच हो गया था
अस्पताल के सहमति पत्र में उसने वही उबड़ खाबड़ हस्ताक्षर कर दिए थे जो ललित ने सिखाये थे।उसे ललित से तब ही बहुत प्यार हो गया था जब उसे खरोंचें लगीं थी लड़ाई में।वो आधी परी को छुपाये हुए थी बायीं मुट्ठी में।आधी परी का बोनमैरो ललित में मिलकर उसे पूरा बना रहा था।
वो क्यों मर न गयी तब ही ये उसको और माँ को समझ आ गया था।
।।अव्यक्त।।
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