Friday, 3 February 2017

राधे-२

आज तक का सबसे सुदंर मैसेज .........ये पढने के बाद एक "आह" और एक "वाह" जरुर निकलेगी...

कृष्ण और राधा स्वर्ग में विचरण करते हुए
अचानक एक दुसरे के सामने आ गए

विचलित से कृष्ण-
प्रसन्नचित सी राधा...

कृष्ण सकपकाए,
राधा मुस्काई

इससे पहले कृष्ण कुछ कहते
राधा बोल💬 उठी-

"कैसे हो द्वारकाधीश ??"

जो राधा उन्हें कान्हा कान्हा कह के बुलाती थी
उसके मुख से द्वारकाधीश का संबोधन कृष्ण को भीतर तक घायल कर गया

फिर भी किसी तरह अपने आप को संभाल लिया

और बोले राधा से ...

"मै तो तुम्हारे लिए आज भी कान्हा हूँ
तुम तो द्वारकाधीश मत कहो!

आओ बैठते है ....
कुछ मै अपनी कहता हूँ
कुछ तुम अपनी कहो

सच कहूँ राधा
जब जब भी तुम्हारी याद आती थी
इन आँखों से आँसुओं की बुँदे निकल आती थी..."

बोली राधा -
"मेरे साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ
ना तुम्हारी याद आई ना कोई आंसू बहा
क्यूंकि हम तुम्हे कभी भूले ही कहाँ थे जो तुम याद आते

इन आँखों में सदा तुम रहते थे
कहीं आँसुओं के साथ निकल ना जाओ
इसलिए रोते भी नहीं थे

प्रेम के अलग होने पर तुमने क्या खोया
इसका इक आइना दिखाऊं आपको ?

कुछ कडवे सच , प्रश्न सुन पाओ तो सुनाऊ?

कभी सोचा इस तरक्की में तुम कितने पिछड़ गए
यमुना के मीठे पानी से जिंदगी शुरू की और समुन्द्र के खारे पानी तक पहुच गए ?

एक ऊँगली पर चलने वाले सुदर्शन चक्रपर भरोसा कर लिया
और
दसों उँगलियों पर चलने वाळी
बांसुरी को भूल गए ?

कान्हा जब तुम प्रेम से जुड़े थे तो ....
जो ऊँगली गोवर्धन पर्वत उठाकर लोगों को विनाश से बचाती थी
प्रेम से अलग होने पर वही ऊँगली
क्या क्या रंग दिखाने लगी ?
सुदर्शन चक्र उठाकर विनाश के काम आने लगी

कान्हा और द्वारकाधीश में
क्या फर्क होता है बताऊँ ?

कान्हा होते तो तुम सुदामा के घर जाते
सुदामा तुम्हारे घर नहीं आता

युद्ध में और प्रेम में यही तो फर्क होता है
युद्ध में आप मिटाकर जीतते हैं
और प्रेम में आप मिटकर जीतते हैं

कान्हा प्रेम में डूबा हुआ आदमी
दुखी तो रह सकता है
पर किसी को दुःख नहीं देता

आप तो कई कलाओं के स्वामी हो
स्वप्न दूर द्रष्टा हो
गीता जैसे ग्रन्थ के दाता हो

पर आपने क्या निर्णय किया
अपनी पूरी सेना कौरवों को सौंप दी?
और अपने आपको पांडवों के साथ कर लिया ?

सेना तो आपकी प्रजा थी
राजा तो पालाक होता है
उसका रक्षक होता है

आप जैसा महा ज्ञानी
उस रथ को चला रहा था जिस पर बैठा अर्जुन
आपकी प्रजा को ही मार रहा था
आपनी प्रजा को मरते देख
आपमें करूणा नहीं जगी ?

क्यूंकि आप प्रेम से शून्य हो चुके थे

आज भी धरती पर जाकर देखो

अपनी द्वारकाधीश वाळी छवि को
ढूंढते रह जाओगे
हर घर हर मंदिर में
मेरे साथ ही खड़े नजर आओगे

आज भी मै मानती हूँ

लोग गीता के ज्ञान की बात करते हैं
उनके महत्व की बात करते है

मगर धरती के लोग
युद्ध वाले द्वारकाधीश पर नहीं, i.
प्रेम वाले कान्हा पर भरोसा करते हैं

गीता में मेरा दूर दूर तक नाम भी नहीं है,
पर आज भी लोग उसके समापन पर " राधे राधे" करते है". 🙏😊☺
Must Read Once
... जय श्रीकृष्णा 👏🌹🌷

उम्दा, मन मोहक,जबरदस्त-२:नि:शब्द

 अनुरोध बस इतना है कि इसे सुकून से महसूस कर पढ़ना।

     कहानी
#आधी #परी।              
(सच्ची घटना पर आधारित)

वो पचास वर्ष की हो गयी होगी लगभग।इतना प्यार और देखभाल उसे पहले कभी नहीं मिली थी।
आज उसे अच्छी सी टेबल पर भरपूर थाली ,फल ,सलाद और मिठाई के साथ दी गयी थी।
ललित पहली बार उसके लिए नया सलवार सूट लाया था, और एक गाउन भी।वर्ना कबसे तो वो बस उतरन ही पहनती आयी थी।बस पिता ही थे जो उसे गोदी उठाते,नई फ़्रॉक लाते और मिठाई खिलाते थे।
बड़ा अज़ीब था सबकुछ।वो आदी नहीं थी अच्छे व्यव्हार की।पिछले तीन दिनों से किसी ने भी उसे झिड़का और दुत्कारा नहीं था।

हाँ वो थोड़ी मंद बुद्धि थी।चीज़ों का बहुत विश्लेषण नहीं कर सकती थी।नयी चीज़ें याद करना भी मुश्किल था,बोलने में भी तुतलाती और अटकती थी।लेकिन बीते अच्छे और बुरे पल उसे याद होते थे हमेशा।शायद इन पलों को दिल सहेजता है दिमाग नहीं इसलिए।
और मस्तिष्क कमज़ोर था उसका दिल,भावनाएं,हंसी,खुशी,सम्मान,अपमान,प्यार,दुत्कार इन सबकी अनुभूति तो थी ही उसे।
उसे वैसे परिष्कृत हाव भाव नहीं आते थे जैसे सबके थे लेकिन वो समझ सकती थी औरों के हाव भाव और बातों के पीछे छिपे प्रेम ,घृणा  और दया को भी।

वो भरी थाली को देखती रही ,हर रोज़ की तरह ही उसे माँ की बातें अब भी याद आतीं।
सम्मान,प्यार,देखरेख  की अब उसे ज़रुरत नहीं थी।जब बरसों तक कोई चीज़ जिसके हम हक़दार  हों न मिले तो प्रकृति उससे विरक्ति पैदा कर देती है।
उसे अब वही विरक्ति थी।

इन्हीं विरक्त,शून्य को तलाशती आँखों में उसके बीते हुए पल घूम रहे थे।

पिता उसके लिए वही फ़्रॉक और मिठाई लाए थे।सब कहते थे वो छह वर्ष की ढोर है।
वो रंग पहचानना तो उस वक़्त तक भी नहीं सीखी थी लेकिन पिता का प्यार वो पहचानती थी।ये फ़्रॉक उसी प्यार से रंगी थी।
उसके कदम लड़खड़ाते थे,कुछ ही वाक्य लड़खाते बोलती थी।मुँह खुला और लार बहाते रखती थी।
वो अपनी सर्वश्रेष्ठ सामर्थ्य से दौड़ते लड़खड़ाते फ़्रॉक तक आयी थी।
ताली बजाई थी,खिलखिलाई थी।
तभी माँ ने फ़्रॉक को उठा कर दूर फेंक दिया था।

"कुलक्षिणी,बोदा, बड़ी फ़्रॉक पहनेगी।
लार बहाना तो बंद कर ले।
गधी से न तो बोलना आता न तमीज़।"

वो सहम गयी थी।
पापा ने उसके लिए लड़ाई भी की थी माँ से,और उसे गले से चिपका कर आंसू भी बहाये थे।माफ़ कर दो मुझे जैसा भी कुछ कहा था।

बड़े होते होते उसे अपनी कहानी पता चल ही गई थी कि आखिर वो ऐसी क्यों है।छोटे भाई ललित जैसी सुन्दर,दौड़ सकने,साइकिल चला सकने,अच्छे से बोल सकने और पढ़ाई कर सकने लायक क्यों नहीं।
उसकी कहानी उसे इसलिए पता चली थी क्योंकि जो भी घर में आता उसे देखते ही पहला प्रश्न ये पूछता, "क्या हुआ था इसे?'
"क्या ये मंदबुद्धि है?"
"एक तो लड़की जात ऊपर से ऐसी।क्या होगा च् च् च्......."
उनकी सहानुभूति अवचेतन में छुपी खुशी सी होती, मानो दिल कहना चाह रहा हो चलो हम और हमारे बच्चे बच गए प्रकृति के इस प्रकोप से।
पिछले जन्म के पाप के विषय में भी चर्चाएं शुरू हो जातीं।

और जवाब में माँ विस्तार से हर बार बताती।

"इसकी महतारी तो मर गई जनम के समय लेकिन हमारे सर पर इसे पटक गयी।
बोलते हैं  देर से रोई थी तो दिमाग को ऑक्सीजन कम
हो गया।उससे ऐसी पगला गयी।"

उसके देर से रोने की सज़ा जीवनभर के आंसू होने वाले थे।
कितनी ही बार माँ कहती "काहे जनम लिया तूने।अपनी माँ के साथ तब ही नहीं मर सकती थी।
आखिर ऐसी ज़िंदगी का मतलब ही क्या।क्यों लेते है जन्म ऐसे बच्चे।"

हाँ उसकी माँ की मृत्यु के एक वर्ष बाद ही पापा ,माँ को ले आये थे।
आखिर लाये वो उन्हें उसके लिए ही थे।आखिर कैसे पालते।
अकेली माएं तो बच्चे पाल लेती हैं लेकिन अकेले पिता नहीं।प्रकृति ने बड़ा कमज़ोर बनाया है इस मामले में पुरुष को।

माँ एक साल तक तो ठीक रही ,लेकिन उसके तीन बर्ष के होते होते ललित आ गया था उनकी गोद में।
अब दो बच्चों को पालना उसपर भी एक बच्ची ऐसी।
मंदबुद्धि।अब भी बिस्तर पर सबकुछ करने वाली।
कटोरी में खाना दो तो पूरे फर्श में फैला देने वाली।
और माँ बदलने लगी।
वो जितना ललित को प्यार करती उतना ही उसे दुत्कारती।
माँ को लगता वो अड़ंगा है ललित की परवरिश में।

लेकिन उसे तो ललित बड़ा प्यारा लगता।
उसका पहला खिलौना। मोटा सा ,गोरा गोरा।
जब वो लड़खड़ा कर चलती तब ललित घुटने के बल चलता।
वो उसकी तरफ बॉल लुढ़काता तो वो खिलखिलाती।

धीरे धीरे दोनों बड़े होने लगे। ललित धीमे और वो बहुत धीमे...।
ललित प्यार से पल रहा था और वो दुत्कार से।
ललित हालाँकि उसे दीदी ही बोलता। प्यार करता, रक्षा करता।उसका खिलौना बड़ा हो गया था और वो छोटी ही रह गयी थी।ललित अब स्कूल और बाहर दोस्तों के साथ ज़्यादा खेलता। वो पुराने हो चुके खिलौने सी बैठी रहती घर में।
पापा ने उसका दिमाग बढ़ाने एक पज़ल सा खिलौना  ला कर दिया था।  आधा टुकड़ा ललित को और आधा उसे दिया था।दोनों को मिलाने पर एक परी बन जाती थी।
वो उसे शुरू में बहुत मुश्किल से जोड़ पाती थी,ललित तुरंत।लेकिन धीरे धीरे वो भी सीख गयी थी आसानी से जोड़ना।उस पज़ल से दिमाग बढ़ा था कि नहीं ये तो नहीं पता लेकिन उसे खुद वो ललित के बिना अधूरी लगने लगी थी।ललित का आधा टुकड़ा ही उसे सम्पूर्ण करता।
लेकिन एक दिन ललित ने आधी पज़ल गुमा दी थी।
वो गुमसुम हो गयी थी।जैसे टूट गयी हो खुद।आधी परी।

स्कूल भेजने की कोशिश की गयी थी उसे भी।लेकिन वो एक अलग दुनिया थी उसके लिए।दो दिन भी नहीं रह पाई थी वहां।
हाँ ललित ने ही नाम लिखना सिखा दिया था।वो दिन भर अपना नाम लिखती रहती।
ललित से उसने एक बार पूछा था लडख़ड़ाती ज़बान से
"भाई मंदबुद्धि कैसे लिखते हैं।"

ललित का जन्मदिन मनाया जाता,उसे संगीत पसंद था,अपने कमरे में थिरकती ताली बजा बजा कर,लेकिन जन्मदिन में शामिल होने की अनुमति नहीं थी उसे।माँ को उसे चिढ़ाये जाने और शर्म का अहसास होता।

उसके सुकून के पल पापा के आने पर होते।जब पापा दोनों को गोदी उठाते।
ललित उसे कितना प्यार करता है उसने तब जाना था जब वो एकबार बाहर आ गई थी , वो क्रिकेट खेल रहा था।
और एक बच्चे ने कह दिया था  "तेरी बहन पागल है।"

और ललित भिड़ गया था उससे।
अपने से बड़े लड़के से।
उसे खरोंचें आयी थीं और माँ से दोनों को बहुत डांट पड़ी थी।
मुझे कहीं ज़्यादा।
माँ ने कहा था "पगलिया को पागल नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे लोग।बुचड़ी क्यों गयी थी बाहर नाक कटाने।
और मेरा बाहर निकलना बिलकुल बंद करवा दिया था।"

और ऐसे ही उसका  बचपन बीता था।
उसकी जवानी न तो आईनों, कपड़ों मेकअप के साथ थी न कॉलेज, कैंटीन ,फिल्मों में।
क्या पता उसे लड़के पसंद आते थे भी या नहीं।क्या प्रेम की आकांक्षा इन्हें भी होती होगी?होती भी हो तो क्या,प्यार पाने के अधिकार तो ये बच्चे तब ही खो चुके होते हैं जब ये जी जाते हैं, मरते मरते।
जवानी में उसपर सबके सामने आने  पर पूरे पहरे लगा दिए गए थे।
ललित की शादी के समय उसने सजी ,धजी खूबसूरत दुल्हन देखी थी,सब कित्ती सुन्दर है,कित्ती प्यारी है बोल रहे थे।
और तब ही वो खुद भी गाढ़ी फ़ैली हुई लिपस्टिक पोत आई थी सबके सामने।

सब उसे देख कर खूब हंसे थे।
वो रुक कर पहले उन्हें हँसते देख रही थी।उसका छोटा सा दिमाग इस हंसी के पीछे के मतलब को प्रोसेस कर रहा था।उसे लगा था लिपस्टिक के बाद उसे भी कहा जायेगा कित्ती सुन्दर लग रही है,लेकिन सब हंसे थे।
जब छोटे दिमाग ने प्रोसेस कर लिया तो वो भी हंसी थी थोड़ा शर्माकर।

ललित की दुल्हन अच्छी थी ।कहीं जॉब करती थी।
अच्छी लेकिन बहुत व्यस्त।उससे वो घृणा वाले शब्द उसने कभी नहीं कहे थे।लेकिन सच तो ये है कि उसने कभी कुछ कहा ही नहीं था।वो कौने में रखा स्टूल थी उसके लिए।धुल लगा स्टूल जिसे छूने से हाथ गंदे हो जाते।
ललित भी व्यस्त होते चला गया।
अब उससे दुर्व्यवहार तो कोई नहीं करता था।माँ भी नहीं लेकिन उपेक्षा खुद भी तो सजा ही होती है।
अकेली कौने में बैठी, खिड़की से देखती रहती बाहर बच्चों को खेलते हुए।।
बचपन में सहानुभूति दिखाने वाली आवाज़ें भी धीरे धीरे ख़त्म हो गयी थीं।

और यूँ ही जवानी भी कट  गयी थी।
सच तो पूछती थी माँ आखिर तू क्यों बच गयी।तू क्यों न मर गयी।

उद्देश्यहीन ,अनुपयोगी जीवन।बस खाना, जागना और सोना यह चक्र चलते पचास वर्ष हो गए थे और आज अचानक उसे सम्मान और अच्छा खाना मिला था।

माँ ने अब कोसना न के बराबर कर दिया था,काफी बूढ़ी और कमज़ोर जो हो गयी थीं।
पिता जब नहीं रहे ,वो रोई नहीं थी।क्योंकि उसका वही छोटा सा दिमाग, प्रोसेस नहीं कर पाया था मौत और उसके मतलब को।
बहुत दिनों तक अब भी वो पहले की ही तरह उनकी आवाज़ की प्रतीक्षा करती रोज़ शाम।

थोड़ा सा खाना ख़त्म कर वो बैठी ही थी कि माँ पास आयी।बूढ़ी ,लेकिन अब भी दिमाग वैसा ही तेज़।
पहली बार शायद नाम लिया था माँ ने ,वरना उसका तो नाम ही मंदबुद्धि रख दिया था माँ ने।

पिछले एक हफ्ते से फ़ैली अज़ीब मनहूसियत और उस पर उसकी ये देखभाल।पुराने खिलौने को जैसे किसी ने झाड़ पोंछ कर फिर से सजा दिया था उजड़े मकान में।
उसकी इस देख रेख के पीछे कहीं, कुछ छुपा था।वो अहसास कर सकती थी। बेचैनी,असमंजस कशमकश जैसे शब्द उसे कहाँ पता थे ,लेकिन ये थे तो उसी की भीतर।और इस घर की दीवारों के भीतर।
सबके बुझे चेहरे, ऊपरी मुस्कराहट तले ढंके थे।

आखिर अब उसे समझ आने ही वाला था।
माँ  सर पर हाथ रख बोली थी  "बेटा मैं जीवन भर तुझे कहती रही तू क्यों जी गयी।क्यों मर न गयी।"

आज समझ आया मुझसे कितना बड़ा पाप हुआ है।

चल डॉक्टर के पास।

ललित ,बहू और माँ तीनों उसे लेकर डॉक्टर के पास गए थे।

डॉक्टर कौशल एक जाने माने कैंसर रोग विशेषज्ञ थे।
उन्होंने मुस्कुरा कर कहा "अच्छा! ले आये आप इन्हें।
ये बहन हैं आपकी?"

"ठीक है फिर हम कोशिश कर सकते हैं।"

माँ ने पुछा था "डॉक्टर ललित ठीक तो हो जायेगा न।
और हमें भी थोडा सा समझा दें ये क्या बीमारी है।"

डॉक्टर ने कहा था

"माँ जी क्रोनिक माइलॉयड ल्युकेमिया नाम का ब्लड कैंसर है ललित को।
ये धीमे धीमे आगे बढ़ने वाला कैंसर है।
बोन मेरो ट्रांसप्लांटेशन ही एक मात्र परमानेंट उपचार है।
हालाँकि बोन मेरो ट्रांसप्लांट में दिक्कत ये है कि ये मैच होना चाहिए साथ ही कुछ खतरा भी होता है।
बोन मेरो मैच होने की सम्भावना भाई बहन में ज़्यादा होती है।और ललित के केस में तो और किसी से लिया ही नहीं जा सकता क्योंकि आप की उम्र ज़्यादा है और आनुवंशिक रूप से कोई और करीबी संबंधी नहीं है।
ललित ने बताया था एक ही बहन है,तो मैंने कहा कोशिश कर लेते हैं।"

"लेकिन हाँ डोनर की सहमति आवश्यक है मिलान के पहले।"

और उससे डॉक्टर ने कहा था "बोनमेरो की जांच में थोड़ा दर्द होगा आपको ,क्या आप करवाओगी?"

उसके उसी छोटे से दिमाग ने बस इतना प्रोसेस किया था इस बार कि इन्हें ललित के लिए मुझसे कुछ चाहिए ,कुछ ऐसा कि मुझे दर्द होगा।

वो उत्तर में बस हंसी थी।
दो दिन बाद बोनमेरो मैच हो गया था
अस्पताल के सहमति पत्र में उसने वही उबड़ खाबड़ हस्ताक्षर कर दिए थे जो ललित ने सिखाये थे।उसे ललित से तब ही बहुत प्यार हो गया था जब उसे खरोंचें लगीं थी लड़ाई में।वो आधी परी को छुपाये हुए थी बायीं मुट्ठी में।आधी परी का बोनमैरो ललित में मिलकर उसे पूरा बना रहा था।

वो क्यों मर न गयी तब ही ये उसको और माँ को समझ आ गया था।

।।अव्यक्त।।

Don't Underestimate yourself

Once upon a time, a clever monkey lived in a tree that bore juicy, red rose apples. He was very happy. One fine day, a crocodile swam up to that tree and told the monkey that he had traveled a long distance and was in search of food as he was very hungry. The kind monkey offered him a few rose apples. The crocodile enjoyed them very much and asked the monkey whether he could come again for some more fruit. The generous monkey happily agreed.

The crocodile returned the next day. And the next. And the next one after that. Soon the two became very good friends. They discussed their lives, their friends and family, like all friends do. The crocodile told the monkey that he had a wife and that they lived on the other side of the river. So the kind monkey offered him some extra rose apples to take home to his wife. The crocodile’s wife loved the rose apples and made her husband promise to get her some every day.

Meanwhile, the friendship between the monkey and the crocodile deepened as they spent more and more time together. The crocodile’s wife started getting jealous. She wanted to put an end to this friendship. So she pretended that she could not believe that her husband could be friends with a monkey. Her husband tried to convince her that he and the monkey shared a true friendship. The crocodile’s wife thought to herself that if the monkey lived on a diet of rose monkeys, his flesh would be very sweet. So she asked the crocodile to invite the monkey to their house.

The crocodile was not happy about this. He tried to make the excuse that it would be difficult to get the monkey across the river. But his wife was determined to eat the monkey’s flesh. So she thought of a plan. One day, she pretended to be very ill and told the crocodile that the doctor said that she would only recover if she ate a monkey’s heart. If her husband wanted to save her life, he must bring her his friend’s heart.

The crocodile was aghast. He was in a dilemma. On the one hand, he loved his friend. On the other, he could not possibly let his wife die. The crocodile’s wife threatened him saying that if he did not get her the monkey’s heart, she would surely die.

So the crocodile went to the rose apple tree and invited the monkey to come home to meet his wife. He told the monkey that he could ride across the river on the crocodile’s back. The monkey happily agreed. As they reached the middle of the river, the crocodile began to sink. The frightened monkey asked him why he was doing that. The crocodile explained that he would have to kill the monkey to save his wife’s life. The clever monkey told him that he would gladly give up his heart to save the life of the crocodile’s wife, but he had left his heart behind in the rose apple tree. He asked the crocodile to make haste and turn back so that the monkey could go get his heart from the apple tree.

The silly crocodile quickly swam back to the rose apple tree. The monkey scampered up the tree to safety. He told the crocodile to tell his wicked wife that she had married the biggest fool in the world.

‌Moral: Don’t underestimate yourself. There are bigger fools in this world.☺😀😃

मार्मिक संदेश, जरूर पढें ☝✋👏👏

Please read this


ऑफिस से निकल कर शर्माजी ने

स्कूटर स्टार्ट किया ही था कि उन्हें याद आया,
.
पत्नी ने कहा था 1 दर्ज़न केले लेते आना।
.
तभी उन्हें सड़क किनारे बड़े और ताज़ा केले बेचते हुए

एक बीमार सी दिखने वाली बुढ़िया दिख गयी।
.
वैसे तो वह फल हमेशा "राम आसरे फ्रूट भण्डार" से

ही लेते थे,
पर आज उन्हें लगा कि क्यों न

बुढ़िया से ही खरीद लूँ ?
.
उन्होंने बुढ़िया से पूछा, "माई, केले कैसे दिए"
.
बुढ़िया बोली, बाबूजी 20 रूपये दर्जन,

शर्माजी बोले, माई 15 रूपये दूंगा।
.
बुढ़िया ने कहा, 18 रूपये दे देना,

दो पैसे मै भी कमा लूंगी।
.
शर्मा जी बोले, 15 रूपये लेने हैं तो बोल,

बुझे चेहरे से बुढ़िया ने,"न" मे गर्दन हिला दी।
.
शर्माजी बिना कुछ कहे चल पड़े

और राम आसरे फ्रूट भण्डार पर आकर

केले का भाव पूछा तो वह बोला 28 रूपये दर्जन हैं
.
बाबूजी, कितने दर्जन दूँ ?

शर्माजी बोले, 5 साल से फल तुमसे ही ले रहा हूँ,

ठीक भाव लगाओ।
.
तो उसने सामने लगे बोर्ड की ओर इशारा कर दिया।

बोर्ड पर लिखा था- "मोल भाव करने वाले माफ़ करें"

शर्माजी को उसका यह व्यवहार बहुत बुरा लगा,

उन्होंने कुछ  सोचकर स्कूटर को वापस

ऑफिस की ओर मोड़ दिया।
.
सोचते सोचते वह बुढ़िया के पास पहुँच गए।

बुढ़िया ने उन्हें पहचान लिया और बोली,
.
"बाबूजी केले दे दूँ, पर भाव 18 रूपये से कम नही लगाउंगी।

शर्माजी ने मुस्कराकर कहा,

माई एक  नही दो दर्जन दे दो और भाव की चिंता मत करो।
.
बुढ़िया का चेहरा ख़ुशी से दमकने लगा।

केले देते हुए बोली। बाबूजी मेरे पास थैली नही है ।

फिर बोली, एक टाइम था जब मेरा आदमी जिन्दा था
.
तो मेरी भी छोटी सी दुकान थी।

सब्ज़ी, फल सब बिकता था उस पर।

आदमी की बीमारी मे दुकान चली गयी,

आदमी भी नही रहा। अब खाने के भी लाले पड़े हैं।

किसी तरह पेट पाल रही हूँ। कोई औलाद भी नही है
.
जिसकी ओर मदद के लिए देखूं।

इतना कहते कहते बुढ़िया रुआंसी हो गयी,

और उसकी आंखों मे आंसू आ गए ।
.
शर्माजी ने 50 रूपये का नोट बुढ़िया को दिया तो

वो बोली "बाबूजी मेरे पास छुट्टे नही हैं।
.
शर्माजी बोले "माई चिंता मत करो, रख लो,

अब मै तुमसे ही फल खरीदूंगा,
और कल मै तुम्हें 500 रूपये दूंगा।

धीरे धीरे चुका देना और परसों से बेचने के लिए

मंडी से दूसरे फल भी ले आना।
.
बुढ़िया कुछ कह पाती उसके पहले ही

शर्माजी घर की ओर रवाना हो गए।

घर पहुंचकर उन्होंने पत्नी से कहा,

न जाने क्यों हम हमेशा मुश्किल से

पेट पालने वाले, थड़ी लगा कर सामान बेचने वालों से

मोल भाव करते हैं किन्तु बड़ी दुकानों पर

मुंह मांगे पैसे दे आते हैं।
.
शायद हमारी मानसिकता ही बिगड़ गयी है।

गुणवत्ता के स्थान पर हम चकाचौंध पर

अधिक ध्यान देने लगे हैं।
.
अगले दिन शर्माजी ने बुढ़िया को 500 रूपये देते हुए कहा,

"माई लौटाने की चिंता मत करना।

जो फल खरीदूंगा, उनकी कीमत से ही चुक जाएंगे।

जब शर्माजी ने ऑफिस मे ये किस्सा बताया तो

सबने बुढ़िया से ही फल खरीदना प्रारम्भ कर दिया।

तीन महीने बाद ऑफिस के लोगों ने स्टाफ क्लब की ओर से

बुढ़िया को एक हाथ ठेला भेंट कर दिया।

बुढ़िया अब बहुत खुश है।

उचित खान पान के कारण उसका स्वास्थ्य भी

पहले से बहुत अच्छा है ।

हर दिन शर्माजी और ऑफिस के

दूसरे लोगों को दुआ देती नही थकती।
.
शर्माजी के मन में भी अपनी बदली सोच और

एक असहाय निर्बल महिला की सहायता करने की संतुष्टि का भाव रहता है..!

जीवन मे किसी बेसहारा की मदद करके देखो यारों,

अपनी पूरी जिंदगी मे किये गए सभी कार्यों से

ज्यादा संतोष मिलेगा...!!
😊😊


Bishnoism: Tree Hugger

The Bishnois
The Bishnois, a Vaishnavite sect, living in western Rajasthan on the fringe of the Thar desert, have for centuries, been conserving the flora and fauna to the extent of sacrificing their lives to protect the environment. For these nature-loving people, protection of the environment, wildlife, and plants is a part and parcel of their sacred traditions. The basic philosophy of this religion is that all living things have a right to survive and share all resources.In the fifteenth century, Jambhoji, a resident of a village near Jodhpur, had a vision that the cause of the drought that had hit the area and hardship that followed was caused by people’s interference with nature. Thereafter, he became a sanyasi or a holy man and came to be known as Swami Jambeshwar Maharaj. This was the beginning of the Bishnoi sect. He laid down 29 tenets for his followers which included a ban on killing animals, a ban to the felling of trees – especially the khejri – which grows extensively in these areas, and using material other than wood for cremations. Nature protection was given foremost importance in these tenets. Since then, the sect has religiously followed these tenets.There are many stories about how the Bishnois have beaten up hunters and poachers for intruding in their area. The sacrifice made by Amrita Devi and over 363 others is a heart-rending example of their devotion. The Maharaja of Jodhpur wanted to build a new palace and required wood for it. To procure this his men went to the area around the village of Jalnadi to fell the trees. When Amrita Devi saw this she rushed out to prevent the men and hugged the first tree, but the axe fell on her and she died on the spot. Before dying she uttered the now famous couplet of the Bishnois, ‘A chopped head is cheaper than a felled tree’. People from 83 surrounding villages rushed to prevent the men from felling the trees and by the end of the day more than 363 had lost their lives.When the king heard about this, he was filled with remorse and came to the village to personally apologize to the people. He promised them that they would never again be asked to provide timber to the ruler, no khejri tree would ever be cut, and hunting would be banned near the Bishnoi villages. The village of Jalnadi thus came to be called Khejarli.The Bishnois will go to any extent to protect the wildlife and the forests around them.Recently this sect was in the news due to the activities of some Mumbai film group that had gone on a hunting spree in their area targeting the black buck. The Bishnois, in keeping to their tradition, prevented them from doing so and lodged a complaint against two of them in the local police station.The heartland of the Bishnois in the forests near Jodhpur is abundant in trees and wildlife. The landscape around here is greener than elsewhere and the animals mainly antelopes, particularly the blackbuck and the chinkara, in these forests are not afraid of humans and are often seen near the villages eating out of the villagers’ hands. The Bishnois have indeed proved that human lives are a small price to pay to protect the wildlife and the forests around them.Though they are staunch Hindus they often do not cremate their dead but bury them, as they are not permitted to use wood for the cremation.There is a saying that goes "Sir santhe rooke rahe to bhi sasto jaan" this means that if a tree is saved from felling at the cost of one’s head, it should be considered as a good deed. It is for this environmental awareness and commitment that the Bishnois stand apart from other sects and communities in India.